Tuesday, December 1, 2009

इंसानियत को नंगा किया ||














एक बार ऐसा हुआ था गुजरात में |
दो सांड निकले थे एक बार रात में |

ख़ामोशी जहां पसरी हुई पड़ी थी |
क़त्ल की रात मुह बाए खड़ी थी||

दोनों एक दुसरे से थे भयभीत |
कौमी एकता की टूट चुकी थी प्रीत| |

भयभीत दोनों, चल तो रहे थे एक साथ |
पर चाहते हुए भी ना कर पा रहे थे बात ||

दोनों अपनी अपनी छुपा रहे थे पहचान |
पता ही नहीं चला की वो हिन्दू थे या मुसलमान||

आखिर चलते चलते दोनों की मंजिल आई |
अपने घर में घुसने से पहले दोनों ने नजरें मिलाई||

दोनों की चाल डगमगाई हुई थी |
दोनों की आँखें डबडबाई हुई थी ||


हिन्दू मुस्लिमों ने दंगा क्या किया |
इंसानियत को इन्होने नंगा किया ||

9 comments:

  1. बेहतरीन रचना। बधाई।

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  2. खुला सांड करारी चोट है भाई ऐसे ही लिखते रहिए। बधाई

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  3. हिन्दू मुस्लिमों ने दंगा क्या किया |
    इंसानियत को इन्होने नंगा किया ||
    वाह क्या बात है, आप ने अपनी कविता मै बहुत गहरी बात कही.
    धन्यवाद

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  4. khuda aapke saaaandpan ko mahfooz rakhe. Shubh kamnayen...

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  5. बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने ! हर एक पंक्तियाँ सच्चाई बयान करती है! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!

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  6. गुजरात में ही नहीं हर कहीं
    जो भी इंसानियत को नंगा करेगा
    उनकी चाल डगमगाएगी
    आँखें डबडबाएगी।

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  7. hindu muskim ne kya kiya, insaniyat ko nanga kiya.........bahut khoob.

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  8. chhupa rahe the apni pahchan .........???

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सांड को घास डालने के लिए धन्यवाद !!!! आपके द्वारे भी आ रहा हूँ! आपकी रचना को चरने!

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