भारतीयता का दम भरता है ||
पर भारत में कोई भारतीय ना मिला|
अपना बना सकूँ ऐसा कोई आत्मीय न मिला ||
जिससे भी मिला मुझसे मेरा नाम पूछा |
सब मेरे नाम से डरे मेरा पता मेरा धाम पूछा ||
मैं भारतीय हूँ मैंने सबको बताया |
पर इतने से लोगों को रास ना आया ||
सभी मुझसे मजहब प्रांत और जात पूछते हैं |
मुझे राम रहीम दोनों प्यारे वो "एक" आधार पूछते हैं !!
कोई न बना मेरा क्यूंकि मुझे तो भारतीय चाहिए था |
न हिन्दू, न मुस्लिम, न सिख, न इसाई, कोई आत्मीय चाहिए था!!
कश्मीर में कश्मीरी, बंगाल में बंगाली,
बिहार में बिहारी, असाम में असामी मिला |
क्षेत्रवाद की घटिया मिली, मजहबों के दायरे मिले,
इतनी आवाम में मुझे भारत का एक आवामी न मिला ||
वाह वाह सांड महाराज बहुत सुंदर कविता कही है आपने, आप तो साम्प्रदायिक सौहाद्र की मिशाल कायम कर रहे हैं।
ReplyDeleteरचना अच्छी लगी।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, लेकिन अभी थोडा ठहरो, अब तो दिवारे भी खिंचने की तेयरी चल रही है, यूरोप के सब देश मिल कर एक हो रहे है ओर हम अनेक हो रहे है
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर सच्चाई बतलाती हर पंक्ति ।
ReplyDeleteसांड खुला है खुला ही चरता है!
ReplyDeleteभारतीयता का दम भरता है ||
ACHCHHA KATAKHA LAGATA HAI
अच्छे भाव
ReplyDeleteआज जाना कि सांड़ ऐसे कविता लिखता है!
बहुत बढ़िया , मज़बूत विचार और सुंदर लेखनी के लिए शुभकामनायें !! आपको क्षद्म वेश की क्या जरूरत थी ?? विचारों ने मन मोह लिया !
ReplyDeleteaap ke vicharo ko mera salam .shiv ka bhakt hu is liye sand ko bakhubi janta hu...vandematram
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